देखा है उम्मीदों को घुटनों के बल चलते हुए
देखा है हकीकत को ख्वाब में बदलते हुए,
हर मौत, ज़िन्दगी का रूप इख्तियार कर रही है
लगता है वक्त की रफ़्तार कुछ बढ़ गई है;
उस मोड़ पर वो 'इमली का पेड़' सूख सा गया है
और चाय कि दुकान भी जाने खो गयी है कहीं
तारीख तो वही है पर हाँ सालों गुज़र गए
क्या वाकई वक्त की रफ़्तार कुछ बढ़ गई है ?
-अक्स
Saturday, January 31, 2009
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सूरत नहीं मिलती लेकिन सीरत एक सी लगती है ....अच्छा लिखा है आप ने ..
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