सारे तर्क वितर्कों से परे औपचारिकताओं से ऊपर उठ कर मेरे ऊटपटांग बातों का अर्थ और उन अर्थों का सन्दर्भ कौन समझता ? अगर न होते "कुछ 'दोस्त ', कुछ 'वफादार ' साथी जिन्होंने निभाया साथ छप्पर फाड़ के"
जब भी टपकी एक बूँद तुम्हारी आँखों से, एक मिसरा बन गयी ! तुम्हारीआवाज़केहरटुकड़ेकोजोड़ामैंने , औरसिलाहरएकउधडेहुएकोनेको! ख्वाबोंकोसींचके, एकइमेजतैयारकिया, औरउधारलिएकुछलब्ज़माज़ीसे !
यूँ तो ये तारीख हर साल ही आती थी , और रख दी जाती थी संदूक में एक बिन ज़वाब के ख़त की तरह , वक़्तसेउधरलियाहरएकलम्हा क़र्ज़बनजाताथाऔर दीवारपेटंगेहुएदिनपलटजायाकरतेथे जैसेहवामेंपलटजातेहैंकिसीकिताबकेपन्ने
मेरे पास कुछ नहीं है जो मैं तुम्हे दे सकूंगा बस प्रेम कर सकता था जो किया मैंने तुमसे पर अब सच्चाई की धरती पर आने के बाद ख्वाब के आसमान खोखले दिखते हैं,
प्रेम से पेट नहीं भरता भरे पेट से ही प्रेम हो सकता है मैं नहीं रख सकूंगा तुम्हे भूखा मैं नहीं देख सकूंगा तुम्हे ढलते हुए,
मैं कमजोर नहीं मजबूर हूँ शायद नहीं रख सकता मैं तुम्हे और अपने दिल में ढूंढ लो अब कोई और ठिकाना, तुम्हारेबेघरहोजानेसे बेहतरहैदूरचलेजाना...
जिस तरह टूट के गिरती है एक बूँद आसमान से और ज़िन्दगी बन जाती है, उसी तरह वक़्त के बदन से टूटे हुए एक अक्स हैं हम सब, एक ख्याल हैं हम जिसे अलग अलग नाम दे दिया है...!