यूँ तो ये तारीख हर साल ही आती थी ,
और रख दी जाती थी संदूक में
एक बिन ज़वाब के ख़त की तरह ,
वक़्त से उधर लिया हर एक लम्हा
क़र्ज़ बन जाता था और
दीवार पे टंगे हुए दिन पलट जाया करते थे
जैसे हवा में पलट जाते हैं किसी किताब के पन्ने
बरसातें सूखी रह जाती थीं
जैसे बिन स्याही के मेरी कलम
पर क्यों आज लगता है ये दिन
पहली बार आया है मेरी ज़िन्दगी में
फिर से जन्मा हूँ मैं आज शायद ,
'पुनर्जन्म' हुआ है मेरा .......
...अक्स
Monday, November 22, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment